जीवन शैली संबंधित विकारों को अतीत में दीर्घायु रोग कहा जाता था क्योंकि इससे केवल बुजुर्ग लोग ही ग्रस्त होते थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन(WHO) के अनुसार जीवन शैली को विकल्पों में से व्यावहारिक चुनाव के पैटर्न के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो व्यक्ति की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों तथा सरलता से दूसरों के ऊपर कुछ एक को चुनने के अनुसार उपलब्ध है।
परंतु आज के समय में तेज़ गति से चलने वाले जीवन के कारण, यहां तक की युवा पीढ़ी भी जीवन शैली संबंधित विकारों जैसे मोटापा, एथेरोस्क्लेरोसिस, मधुमेह और हृदय संबंधी रोगों का सामना कर रहे हैं। गतिहीन जीवन शैली, गलत खान-पान के तरीके तथा अस्वास्थ्यकर नींद के तरीके इसके प्रमुख कारणों में सम्मिलित है।वर्तमान परिदृश्य में आयुर्वेदिक इलाज मधुमेह और अन्य जीवन शैली संबंधित बीमारियों के इलाज के लिए लोगों की पसंद बनता जा रहा है ।
आयुर्वेद में रोगों के कारण
आयुर्वेद में किसी भी बीमारी के लिए तीन प्रमुख कारणों का उल्लेख किया गया है जो कि काल(समय), अर्थ(ज्ञानेंद्रिय), कर्म(क्रिया) के हीनयोग( कम इस्तेमाल), मिथ्यायोग( गलत इस्तेमाल) तथा अतियोग( अत्यधिक इस्तेमाल) हैं। अर्थ का तात्पर्य कर्म इंद्रियों तथा ज्ञान इंद्रियों से है। कर्म इंद्रियों में वाक्(मुंह), हस्त(हाथ), पद( पैर), गुदा(मलद्वार), तथा लिंग(यौन अंग) सम्मिलित हैं। कर्ण(कान), नेत्र(आंख), जिह्वा(जीभ), नासा(नाक) और त्वचा(स्किन) ज्ञान इंद्रियां है। कम आसक्ति जैसे कम चलना और बिल्कुल व्यायाम न करना, अत्यधिक खान-पान तथा एक ही स्थान पर लगातार बैठे रहना रोगों को बढ़ाने के कुछ कारक हैं।
यह सभी कारक जीवनशैली संबंधित विकारों और चयापचय संबंधित विकारों जैसे मोटापा, मधुमेह, डिस्लिपिडीमिया के सहायक हैं।आचार्य चरक द्वारा संतरपंजनय रोग तथा स्थौलय की व्याख्या की गई है जिसको जीवनशैली के विकारों से जोड़ा जा सकता है। चरक संहिता में बहुत से उद्धरण उल्लेखित हैं जैसे “दुबला और पतला होना मोटा होने से बेहतर है क्योंकि मोटापा जीवन को खतरे में डालने वाले विकारों का कारण है, जिसका उपचार कठिन है”।एक और प्रसिद्ध उद्धरण यह है कि, एक व्यक्ति जो चलने के बजाय खड़े रहना पसंद करता है, खड़े रहने के बजाय बैठना पसंद करता है, बैठने के बजाय लेटना पसंद करता है, लेटने के बजाय सोना पसंद करता है, वह प्रमेह रोग( मधुमेह) से अवश्य मर जाएगा।
आयुर्वेद के माध्यम से जीवन शैली संबंधित रोगों से बचाव
आयुर्वेद जीवन जीने का तरीका है और इसीलिए इसके सिद्धांतों में बीमारियों को सबसे पहले रोकने के लिए कहा गया है, “स्वस्थस्यस्वस्थ्य रक्षण” और यदि नहीं रोका जा सकता तो विभिन्न उपचारों के माध्यम से इसे प्रतिबंधित करने के लिए “आतुरस्यविकारप्रशमन”। जीवन संबंधी विकारों से बचने के लिए निम्नलिखित बातों का पालन करना चाहिए।
प्रकृति
किसी भी प्रकार की बीमारी से बचाव के लिए सभी व्यक्तियों को सबसे पहले एक जीवन शैली का पालन करना चाहिए, जिसमें उनकी प्रकृति के अनुसार भोजन की आदतें, सोने की आदतें, और दैनिक दिनचर्या की आदतें शामिल है। प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति गर्भधारण के समय निश्चित हो जाती है जिसमें बाद में बदलाव नहीं किया जा सकता है। जिस व्यक्ति में पित्त दोष की प्रकृति प्रधान हो उसे गर्म एवं मसालेदार भोजन से बचाव करना चाहिए। इस प्रकार कफ प्रधान व्यक्ति को मीठे, तैलीय और अन्य भारी खाद्य पदार्थो से दूर रहना चाहिए जो कफ दोष को नष्ट करेंगे तथा कफ प्रधान रोगों जैसे स्थौल्या और प्रमेह का कारण बनेंगे।
दिनचर्या
दिनचर्या ( दैनिक आहार) दैनिक कार्यों का एक सेट है जो आत्म-देखभाल और रोगों से बचाव में सहायक है। दिनचर्या में व्यायाम को विस्तृत रूप में समझाया गया है। इसमें स्वस्थ व्यक्तियों के साथ- साथ मोटापा, मधुमेह, और अन्य कफ रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों के लिए संकेत दिया गया है। इसे संयमित रूप से करना चाहिए क्योंकि अत्यधिक व्यायाम हृदय की थकान सुस्ती उल्टी और हृदय संबंधी रोग को बढ़ावा दे सकता है। “अर्धशक्ति” या अपनी शक्ति और क्षमता का आधा व्यायाम करना इष्टतम मात्र है जो किसी व्यक्ति को करना चाहिए। शरीर में हल्कापन स्थिरता और दृढ़ता व्यायाम के लाभ हैं। यह वसा के जमाव को भी काम करता है और पाचन अग्नि को बढ़ाता है। व्यायाम करने के लिए सर्दी और वसंत ऋतु सर्वोत्तम ऋतुएं है क्योंकि इन ऋतुओं में हमारे शरीर की शक्ति सबसे अधिक होती है। इन सभी सर्वोत्तम लाभों के साथ व्यायाम जीवन शैली संबंधित विकारों से बचाव के लिए सभी तरीकों में सर्वश्रेष्ठ है।
आहार और निद्रा
त्रयोस्तंभ की आहार, निद्रा, और ब्रह्मचर्य के रूप में व्याख्या की गई है जो स्वास्थ्य के तीन स्तंभों को संदर्भित करता है। आयुर्वेद के विभिन्न नियमों का पालन करके त्रयोस्तंभ को संतुलित करने से शरीर के दोष एवं धातुओं की संतुलित अवस्था प्राप्त करने में मदद मिलती है। आहार या भोजन धातु पोषण के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण कारक है, क्योंकि यह वृद्धि और विकास में सहयता करता है। भोजन दिन में दो बार, सही समय पर, सही मात्रा में(सम मात्रा), और उचित पाचन(जीर्ण आहार) के बाद खाना चाहिए। समाशन (एक ही समय में पौष्टिक और अपौष्टिक का एक साथ सेवन), विषमाशन (अनियमित समय पर कम और अधिक भोजन का सेवन), अध्याशन (पहले खाए हुए भोजन के पाचन से पहले दोबारा भोजन का सेवन), यह सभी कारक जठराग्नि के लिए हानिकारक है। यह मंद जठराग्नि बहुत सी पुरानी बीमारियों को जन्म देती है।
निद्रा एक अन्य महत्वपूर्ण कारक है और यह आधारणीय वेग है। निद्रा वेग में कमी से सर में भारीपन, शरीर दर्द, और सर दर्द होता है। लंबे समय में, यह निद्रा चक्र में बाधा और उच्च रक्तचाप का कारण बन सकता है। दिन में निद्रा (दिवास्वप्न) त्रिदोष को असंतुलित करता है और इसे अधर्म भी कहते हैं। यह अच्छी निद्रा के महत्व को दर्शाता है।
शमन और शोधन चिकित्सा
यदि निदान परिवर्जन नहीं किया जाता है तो रोग बढ़कर दूसरी अवस्था में चल जाता है और फिर रोग की गंभीरता और रोगी की स्थिति को देखकर शमन और शोधन चिकित्सा की सलाह दी जाती है। शमन में जीवन शैली संबंधित विकारों के निदान के लिए त्रिफलागुग्गुलु, त्रिकटु, मेदोहर गुग्गुलु और चंद्रप्रभा वटी टैबलेट जैसी आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों का उपयोग शामिल है।
उद्वर्तन द्वारा त्रिफला चूर्ण मोटापा और कफ प्रधान रोगों में भी बहुत लाभकारी है। पंचकर्म का उद्देश्य शरीर की गहराई में बैठे हुए टॉक्सिक पदार्थ हो को निकालना और व्यक्तियों के जीवन काल को बढ़ाना है। विशेष रूप से विवेचन और बस्ती महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। लेखन बस्ती, वैतरण बस्ती, मेदोहर बस्ती, और मधुतालिका बस्ती, जीवन शैली संबंधित विकारों के लिए सांकेतिक निरूहा बस्ती के विभिन्न प्रकार हैं।
जीवन शैली संबंधित सभी विकारों को आयुर्वेद के दिनचर्या, ऋतुचर्या और रात्रिचर्या के अनुसार पालन करके आसानी से रोका जा सकता है। निदान परिवर्जन और पंचकर्म जीवन शैली संबंधित विकारों के उपचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जीवन शैली संबंधित रोगों के उपचार के लिए आयुर्वेद का क्षेत्र असीमित है। एक उचित और अच्छे चिकित्सक को अपनी युक्ति का प्रयोग करना चाहिए और रोगी के आवश्यकता के अनुसार उसका उपचार करना चाहिए।